बातों-बातों में: हम भारत के लोग...
भगवत प्रसाद पाण्डेय
वह आज ही का दिन (26 नवंबर) था, बस साल 1949 का था। संविधान सभा ने वह महान दस्तावेज अपनाया, जिसे हर भारतीय गर्व से कहता है भारत का संविधान। हालांकि यह 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। संविधान दिवस हमें याद दिलाता है उस संविधान को, जिसने हमें अधिकार भी दिए और कर्तव्य भी। उम्मीदें भी दीं और एक व्यवस्था भी, लेकिन यह वही संविधान है जिसे कुछ लोग मंचों पर जेब से निकालकर हवा में लहराते हैं।
यह वही संविधान है जिसकी शपथ तो -'हम भारत के लोग...' कह कर लेते रहते हैं, पर उसकी आत्मा को सबसे ज़्यादा हम ही ठेस पहुंचाते हैं। हम भारत के लोग... 'बातें-बातों में बहुत कुछ कहते हैं और करते अक्सर ठीक उल्टा।हम भारत के लोग सबके लिए कानून बराबर होने की बात करते हैं, पर जब नियमों की तलवार हमारी तरफ घूमती है, तो हमें अचानक मानवीयता, लचीलेपन और चलो, इस बार छोड़ दो की याद आने लगती है। हम भारत के लोग व्यवस्था बदलने के सपने रोज़ देखते हैं, पर खुद में बदलाव की पहल शायद ही कभी करते हों।
हम भारत के लोग लोकतंत्र को मजबूत बनाने की बातें तो खूब कहते हैं, लेकिन लोकतंत्र को मजबूत करने वाली बुनियादी आदतें जैसे-ईमानदारी, जवाबदेही और अनुशासन इनसे हम दूर-दूर तक परिचित नहीं दिखते। हम भारत के लोग भ्रष्टाचार को तब तक सबसे बड़ा पाप समझते हैं, जब तक कि उससे फायदा किसी और को हो रहा हो। लेकिन यदि 'छोप छाप' में कुछ मिल जाए, 'सेटिंग' से कोई काम निकल जाए, या 'थोड़ा बहुत तो चलता है' वाली संस्कृति हमारे हक में हो, तो हम बड़ी सहजता से स्वीकार भी कर लेते हैं।
हम भारत के लोग यातायात नियमों पर ज्ञान का भंडार बांटते फिरते हैं। हेलमेट न पहनने पर उल्टा पुलिस को कोसना, सीट बेल्ट के लिए बहस, रेड लाइट
तोड़कर दूसरों को ट्रैफिक सिखाना—यह सब हमारी खासियत है। हम भारत के लोग दूसरों को कतार में लगने की सलाह देते हैं, लेकिन खुद लाइन में खड़े होते-होते हमारे भीतर की अति विशिष्ट व्यक्ति (VVIP) वाली आत्मा जाग जाती है। हम भारत के लोग साफ-सफाई पर तो टनों भाषण दे सकते हैं। बस कूड़ा उठाकर पास के खाली प्लॉट में फेंक देना हम अपना मौलिक अधिकार समझते हैं। हम भारत के लोग नेता भी ऐसे चुनते हैं, जो हेलीकॉप्टर से उतरकर बड़े-बड़े वादों की बौछार करते हैं। वे ऊपर से आते हैं, लेकिन समस्याएं नीचे से उन तक कभी पहुंच ही नहीं पातीं-कभी रास्ते में ही थक जाती हैं, कभी फाइलों की भीड़ में दब जाती हैं, और समाधान तो अक्सर होता ही नहीं। हम भारत के लोगों की विडंबना यह नहीं कि हम आदर्श नहीं हैं। हमारी विडंबना यह है कि हम अपने आदर्शों की बातें बहुत करते हैं और अपने व्यवहार की समीक्षा कभी नहीं करते।
यह संविधान दिवस केवल एक तारीख नहीं है। यह एक दर्पण है, जिसमें झांककर हमें यह देखना चाहिए कि हम भारत के लोग वास्तव में कितनी दूर आए हैं और कितनी दूर जाना बाकी है। लेकिन दु:ख यही है कि हम इस दर्पण को बड़ी आसानी से दीवार की ओर घुमा देते हैं और व्यस्त हो जाते हैं उसी देश को बचाने की बातें करके जिसे हम रोज़ अपनी आदतों से कमजोर करते जाते हैं। हम भारत के लोग यदि बातों-बातों में इतना ही देश बदल पाते, तो शायद आज यह व्यंग्य लिखने की ज़रूरत ही न पड़ती।
(लेखक राजस्व विभाग के सेवानिवृत्त CAO और साहित्यकार हैं)
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