बातों-बातों में (व्यंग्य):
'हमारी ज़मीन खिसकती जा रही है। वन्य आहार मिलता नहीं। पापी पेट का सवाल है—भूख हमें भी लगती है। यही भूख हमें गाँवों और कस्बों की ओर खींच लाती है।'
भगवत प्रसाद पाण्डेय
2014 के चुनाव में एक नारा सुना था न आपने ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी।’ अब उत्तराखण्ड के चम्पावत ज़िले में उसी तरह का एक वन्य संस्करण सुनाई दे रहा है। ‘हर-हर गुलदार, दर-दर गुलदार।’ वैसे राज्य सरकार चम्पावत ज़िले में विकास की बात को लेकर इसे ‘आदर्श ज़िला’ बनाने में लगी है। मगर यहाँ गुलदारों की धमक ने आदर्श ज़िले के विकास की परिभाषा ही बदल दी है। इस विकास का क्रम कुछ अलग ही है।

यहाँ बच्चे पहले स्कूल नहीं पहुँचते, क्योंकि शिक्षक नहीं होते।
यहाँ रोगी पहले अस्पताल नहीं पहुँचते, क्योंकि चिकित्सक नहीं होते।
यहाँ गाड़ियाँ पहले नहीं पहुँचतीं, क्योंकि सड़कें नहीं होतीं।
यहाँ नेटवर्क पहले नहीं पहुँचता, क्योंकि टावर नहीं होते।
लेकिन गुलदार साँझ ढलने से पहले गाँव-गाँव, घर-घर पहुँच जाते हैं—क्योंकि उन्हें जानवर न भी मिलें, तो अब आदमी मिलने लगे हैं।
इन दिनों यहाँ सुबह-सुबह दूसरी खबरें कम होती हैं, लेकिन गुलदार की चहलकदमी के समाचार ज़्यादा पढ़े और पूछे जाते हैं—
“आज दर्शन कहाँ हुए?”
स्थिति दिन-प्रतिदिन गंभीर और डरावनी होती जा रही है। कई लोग गुलदार से आमना-सामना होने के बाद डरे-सहमे हैं। कुछ राहगीरों को इन गुलदारों ने पंजे मारकर घायल किया है। मंगोली और च्यूरानी में दो लोगों की जान जा चुकी है। उनके परिवार अभी तक सदमे से उबर नहीं पाए हैं।
इसके बावजूद प्रशासनिक आश्वासन वही घिसा-पिटा पुराना
“स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है।”
देखा जाए तो गुलदारों पर नियंत्रण बड़ा कठिन है। वास्तविकता यह है कि वन विभाग जब किसी एक गाँव से गुलदार को पिंजरे में पकड़ता है, तो दूसरे गाँव से दूसरा गुलदार गुर्राकर भरोसा दिला देता है—
“चिन्ता मत कीजिए, मैं हूँ ना।”
यानी गुलदारों की कमी नहीं है। अब तो लगता है, पिंजरों की भी कमी पड़ जाएगी।
इन पूरे घटनाक्रमों में गुलदारों का पक्ष अक्सर अनसुना रह जाता है। नारे तो वे लगा नहीं सकते, लेकिन अपनी गुर्राहट में शायद यह कह रहे हैं—
“गाँव वालों! आज की अपेक्षा हम पहले अधिक थे। हम अपनी गुफाओं में रहते थे। हमारी अपनी जल, जंगल और ज़मीन थी। जंगल में ही मंगल था। भोजन नज़दीक था और आदमी हमसे कोसों दूर।”
“आज हाल यह है कि सचमुच हम कम हो गए हैं। हमारी ज़मीन खिसकती जा रही है। वन्य आहार मिलता नहीं। पापी पेट का सवाल है—भूख हमें भी लगती है। यही भूख हमें गाँवों और कस्बों की ओर खींच लाती है। जैसे ही हम इसकी तलाश में दो क़दम चलते हैं, लोग हड़कंप मचा देते हैं।”
“कोई हमारी फोटो खींच लेता है, कहीं हम ट्रैप कैमरे में दिख जाते हैं। कोई रील बना देता है, कोई हमारे कार्टून बना देता है। कुछ ही पलों में हम सोशल मीडिया पर वायरल हो जाते हैं। हमें खूंखार, आदमखोर—क्या-क्या कहा जाता है। इन दिनों हम खाना कम और लोगों की गालियाँ ज़्यादा खा रहे हैं। साहब! हम गुलदारों ने जीने का ढंग क्या बदला, हमारी बदनामी स्थायी कर दी गई।”
निवासी—पाटन-पाटनी (लोहाघाट)
(लेखक राजस्व विभाग के पूर्व मुख्य प्रशासनिक अधिकारी
और साहित्यकार हैं)
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