दर्द से कराहना भूल गए बकोड़ा के लोग…1 डंडे के आसरे 5 किमी दूरी लांघ पहुंचे अस्पताल

चारा पत्ती काटते पेड़ से गिर जख्मी हुई थी 45 साल की कलावती
5 किमी पैदल फिर 31 किमी जीप से टनकपुर अस्पताल पहुंचाया
देवभूमि टुडे
चंपावत/टनकपुर। इस गांव में दर्द की तो कोई दवा नहीं है, इसलिए लोगों ने दर्द को ही दर्द की दवा मानते हुए जिंदगी जीना सीख लिया है। ये हाल नेपाल सीमा के करीब के तल्लादेश के एक गांव बकोड़ा का है। इस दर्द की नई किरदार एक महिला है। चारा पत्ती काटने में पेड़ से गिरी, शरीर कई जगह से लहूलुहान हुआ। जख्म से कराहती महिला को अस्पताल ले जाने के लिए एक डंडे के सहारे 5 किलोमीटर पैदल दूरी तय करने के बाद 31 किलोमीटर सड़क मार्ग से टनकपुर पहुंचाया गया। बहरहाल इलाज के बाद हालत में सुधार है।
सड़क विहीन बकोड़ा गांव की कलावती देवी (45) पत्नी चतुर सिंह 17 जून की अपरान्ह घर के पास के एक पेड़ से चारा पत्ती काट रही थी। इसी बीच कलावती का पांव फिसला और वह सीधे पेड़ से जमीन में गिर गई। गांव के लोगों को महिला के चोट लगने की जानकारी दी गई, तो अस्पताल पहुंचाने के लिए लोगों को इकट्ठा करने के साथ ही डंडे को डोली का रूप दिया जाने लगा। गांव के दिनेश सिंह बोहरा ने बताया कि चोटिल कलावती को संकरे रास्ते के बीच 5 किमी दूर चूका तक ले जाने के लिए डंडे में मजबूती से एक कपड़ा बांधा गया। इस डंडे और कपड़े के बीच में कलावती को लिटाया गया। दो लोग डंडे को अपने कंधे में ले गए, लेकिन कलावती को डंडे में संतुलन बनाए रखने के लिए चोट से कराहने के बावजूद दोनों हाथों से डंडे को भी पकड़े रखना पड़ा। बारी बारी से गांव के सुनील बोहरा, जोगा सिंह, बलवंत बोहरा, गिरीश बोहरा, उदय सिंह बोहरा, कृष्ण बोहरा, बल्लू बोहरा आदि ने डंडे पर अपना कंधा दे इस सफर को ढाई घंटे में तय किया। यहां से निर्माणाधीन टनकपुर-जौलजीबी रोड के चूका पहुंचाया गया। फिर चूका से 31 किमी दूर टनकपुर जीप से ले जाया गया। डॉक्टरों ने बताया कि महिला के हाथ में चोट के अलावा सीने में अंदरूनी चोट है। अलबत्ता इलाज के बाद हालत में सुधार है।
बकोड़ा के दर्द की इसलिए नहीं है कोई दवा…कम आबादी व घना जंगल आ रहा सड़क के आड़े
सरकार ने हर घर हर नल तो दे दिया, लेकिन हर गांव के लोगों को सड़क अभी तक नहीं मिली। ये कहना है कि गांव के लोगों का। बकोड़ा को मंच से जोडऩे के लिए 12 किमी लंबी सड़क 12 साल पहले यानी 2012 में मंजूर हो चुकी है, लेकिन काम आज तक शुरू नहीं हो सका है। 17 (पनतौला, खुलकना, ग्वानी, मरथपला, स्यूतौला, बसेड़ी, खटगरी, सूना गांव, मटकांडा, बकरौला, डांडा, बकोड़ा, मथार, अकरी, मोष्टी, बांस और मोस्टा) तोकों को सड़क से जोडऩे वाली इस रोड की कटिंग शुरू नहीं हो सकी है। कम आबादी वाले इन गांवों के लिए सड़क बनने में हो रही देरी की वजह घना जंगल है। इस दौरान लोकसभा और विधानसभा के तीन-तीन चुनाव के अलावा दो बार त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव भी हो चुके हैं। इसका नतीजा गांव के लोग विकास के पिछड़ेपन और सुविधाओं की कमी के अलावा बीमार व्यक्ति, चोट लगने या किसी अन्य आकस्मिक कारण से सड़क तक लाने के लिए डोली के नाम पर एक डंडा ही आसरा है। लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों का कहना है कि मंच से बकोड़ा सड़क का प्रस्ताव राज्य के नोडल कार्यालय में है। मंजूरी के बाद ही निविदा और कटिंग का काम शुरू हो सकेगा। लेकिन ये जवाब आज ही नहीं, पिछले 12 सालों से इसी तरह से खानापूरी कर रहा है।
सड़क नहीं होने के नुकसान:
1.विकास में पिछड़ापन।
2.जूनियर हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए 12 किमी दूर मंच आने की मजबूरी।
3.स्वास्थ्य केंद्र नहीं, इलाज के लिए डोली के सहारे मंच और फिर चंपावत जिला अस्पताल लाना बेबसी।
4.सड़क पर स्थित मंच गांव से सामान की लागत 40 से 50 प्रतिशत ज्यादा।

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