हिंदी दिवस…सांस्कृतिक पहचान और आत्मगौरव का उत्सव

भगवत प्रसाद पाण्डेय
विरासत केवल ज़मीन-जायदाद या भौतिक धरोहरों तक सीमित नहीं होती। असली विरासत हमारी संस्कृति है। इस संस्कृति की आत्मा बोली-भाषा में बसती है। भाषा ही संस्कृति का दर्पण और वाहक होती है। भारत जैसे विविधता से भरे देश में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ हैं लेकिन सबसे व्यापक रूप से बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी ही है। संस्कृत से जन्मी और देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी हमें एक सूत्र में बाँधती है। यही कारण है कि हर वर्ष 14 सितंबर को हम हिंदी दिवस मनाते है।
भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। हिंदी दिवस हमें केवल हिंदी के महत्व की याद नहीं दिलाता, बल्कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करने का अवसर भी देता है। हमें अधिक से अधिक लिखने, पढ़ने और बोलने में हिंदी का प्रयोग करना चाहिए ताकि संवाद सहज और आत्मीय बने।
इतिहास साक्षी है कि ब्रिटिश शासनकाल में भी अंग्रेज अधिकारी भी हिंदी सीखते और बोलते थे। उन्हें मालूम था कि भारत जैसे विशाल देश को समझने और शासन, प्रशासन चलाने के लिए यहाँ की भाषा जानना आवश्यक है। हाल ही में नैनीताल उच्च न्यायालय की एक टिप्पणी ने इस विषय को फिर से चर्चा में ला दिया। पंचायती चुनावों से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान खंडपीठ के एक सवाल का उत्तर देते हुए अपर जिला मजिस्ट्रेट नैनीताल ने यह कहा कि उन्हें अंग्रेजी समझ में आती है, पर बोलने में कठिनाई होती है। इस पर न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा और देश में एक नई बहस का विषय बन गया।
यहाँ सवाल उठता है कि जब उत्तराखंड जैसे हिंदी भाषी राज्य की आधिकारिक भाषा ही हिंदी है, तो अंग्रेजी बोलना क्यों अनिवार्य माना जाए? दुनिया के कई देश बिना अंग्रेजी के भी शिक्षा, शासन और प्रशासन सफलतापूर्वक चला रहे हैं। वे हर क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं, फिर हमारे देश में अंग्रेजी को ही श्रेष्ठता और योग्यता का पैमाना क्यों बना दिया गया है?
समस्या हमारी मानसिकता और राजनीतिक व्यवस्था में भी है। अक्सर लोग कहते हैं—“मेरा हिंदी में हाथ तंग है।” मानो हिंदी जानना किसी हीनता का प्रतीक हो। वहीं, कुछ माह पहले भारत स्थित रूसी दूतावास के उप प्रमुख रोमन बाबुश्किन ने पत्रकारों से ठेठ हिंदी में बातचीत की। इससे यह संदेश गया कि हिंदी किसी से कम नहीं। उनकी सहज हिंदी उन लोगों को आईना दिखाती है जो अंग्रेजी को तो सम्मान देते हैं, पर हिंदी से परहेज़ करते हैं।
सच है कि भारत की कोई ‘राष्ट्रीय भाषा’ नहीं है, लेकिन हिंदी को ‘राजभाषा’ का दर्जा प्राप्त है। इसका अर्थ है कि सरकारी कार्यों में हिंदी का प्रयोग किया जा सकता है। अब समय आ गया है कि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों की कार्यवाही भी हिंदी में संचालित करने के लिए ठोस क़ानून बने।
आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हम हिंदी बोलने में संकोच करते हैं। ऐसे में हिंदी दिवस केवल औपचारिकता न बनकर हमारी सांस्कृतिक पहचान और आत्मगौरव का उत्सव होना चाहिए। हिंदी भाषा हमारी पीढ़ियों की विरासत है, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए, न कि शर्म।
लेखक चंपावत कलक्ट्रेट में सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं।

भगवत प्रसाद पाण्डेय
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